भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय सरकार की सीमाएं नेतृत्व की क्षमता के कारण धीरे-धीरे देश को गंभीर अनिश्चितता के दलदल की ओर धकेलती नजर आ रही हैं। पिछले तीन महीनों में कोरोना वायरस ने भारतीय जनजीवन और अर्थव्यवस्था को लगभग तहस नहस कर दिया है। भारत इस मायने में अपवाद नहीं है। लगभग पूरी दुनिया इसके चपेट में है पर जिस रूप में इसने भारतीय जीवन को प्रभावित किया है वैसा शायद ही किसी देश में हुआ हो।
निजी क्षेत्र के कामधंधों, सरकारी कार्यालयों और बाजारों के कुछ सीमा तक खोल दिए जाने के बावजूद जनजीवन सामान्य होता नजर नहीं आ रहा है। सरकार ने जिस हड़बड़ाहट में या कहिए अपने जानेमाने विस्मित कर देने वाले अंदाज में इस बीमारी के नाम से देश को हिलाया उसके धक्के से तीन महीने बाद भी उबरना तो रहा दूर, वह संभल भी नहीं पाया है। विशेषकर भारतीय संदर्भ में जहां सामाजिक कल्याण और स्वास्थ्य पर सरकार की चिंता सबसे कम है। जो घट रहा है उसे इसी संदर्भ में देखा, समझा और उसका सामना किया जाना चाहिए था पर दुर्भाग्य से वैसा हो नहीं पाया है।
आज स्थिति यह है कि पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था ठप पड़ी है और करोड़ों लोग बेरोजगार और विस्थापित हो चुके हैं। ये वे लोग हैं जो उत्पादक श्रमिक हैं। 27 जून को प्रकाशित पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्तर पर काम करने वाली एक रेटिंग कंपनी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गहरे संकट में बतलाया है और उसकी विकास दर के इस वर्ष पांच प्रतिशत तक गिरने की संभावना व्यक्त की है। यद्यपि उसका यह भी कहना है कि यह आगामी वर्ष संभल जाएगी। दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन की सौम्या स्वामिनाथन ने 25 जून को कहा है कि कोविड के टीके को तैयार होने में एक से डेढ़ वर्ष लगने की संभावना है। दूसरे शब्दों में सन् 2021 के अंत से पहले कोविड के पूरी तरह नियंत्रित हो पाने के आसार नहीं हैं। ऐसी स्थिति में जब बीमारी के प्रति समझ यथार्थवादी दृष्टि की जगह डर में परिवर्तित हो चुकी हो, अर्थव्यवस्था कैसे संभालेगी, कहा नहीं जा सकता। स्पष्ट है कि करोड़ों लोगों के आय के साधन इस बीच सूख चुके हैं और जो तथ्य सामने हैं उन्हें देखते हुए सन 2021 के अंत तक भी इसके पटरी पर आने के आसार मुश्किल लग रहे हैं। अगर अगले वर्ष के अंत तक कोरोना का टीका इजाद कर लिया जाता है तो भी वह आम भारतीय को कब और किस कीमत पर उपलब्ध होगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है। विकसित देशों ने पहले से ही उन संस्थाओं को पैसा देकर अपने लिए सुरक्षित कर लिया है जो टीके को विकसित करने में लगी हैं। इधर बीमारी सामुदायिक संक्रमण के दौर में प्रवेश कर चुकी है। दूसरे शब्दों में गरीबों के लिए संकट कम नहीं होने जा रहा है, यद्यपि अगर टीका बाजार में आ भी गया तो भी वह जिस कीमत पर होगा, उसको निम्न तो छोडि़ए मध्यवर्ग तक आसानी से चुकाने की स्थिति में नहीं होगा।
दूसरी ओर जब सरकार के अपने ही संसाधन सिमट रहे हों, यह किस तरह से स्थितियों का सामना करेगी, इस सवाल का उत्तर भी आसान नहीं है। इस संदर्भ में तेल का उदाहरण सरकार के विकल्पों के लगभग खत्म हो जाने का प्रमाण है। जब दुनिया में तेल के दाम लगातार घट रहे हों भारत में वह बढ़ते जा रहे हैं। दिल्ली में डीजल के दाम इसलिए पेट्रोल को पीछे छोड़ गए हैं क्योंकि मध्य व उच्च वर्ग के लोगों के आने जाने के घटने से पेट्रोल की खपत में जबर्दस्त कटौती हुई है पर माल की आवाजाही से डीजल की मांग कम से कम घटी नहीं है।
स्पष्ट है कि जब तक कोरोना नियंत्रित नहीं होगा तब तक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना संभव नहीं हो पाएगा। इस बीमारी का सामना करने की रणनीति में जो आधारभूत गलती रही है उसकी क्षतिपूर्ति अब भी नजर नहीं आ रही है। यह अचानक नहीं है कि उन शहरों-क्षेत्रों में बीमारी का प्रकोप सबसे भीषण है, जहां सबसे ज्यादा व्यापार और उद्योग केंद्रित हैं – फिर चाहे वह मुंबई हो, सूरत हो, दिल्ली हो या फिर तमिलनाडु।
अब मसला यह नहीं है कि श्रमकी जरूरत नहीं रही है बल्कि यह है कि अब वह, जो दुनिया का सबसे सस्ता मजदूर है, इन व्यापारिक और औद्योगिक केंद्रों में नहीं है। दूसरी ओर इस मजदूर की हालत यह है कि यह अपनी बचत से एक महीना भी बैठकर नहीं खा सकता, जबकि अर्थव्यवस्था को थमे तीन महीने से ज्यादा हो चुके हैं। इसी के साथ यह भी सत्य है कि इसी श्रमिक के बल पर भारतीय अर्थव्यवस्था टिकी है। यह ठीक है कि कुछ श्रमिक अपनी पुरानी जगहों पर लौटले लगे हैं पर वे कुल मिला कर नाकाफी ही रहेंगे।
कोविड 19 जिस तरह से हमारे समाज के यथार्थ को सामने लाया है उसमें देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का मसला भी शामिल है। यह बीमारी चूंकि अपनी संक्रामकता और व्यापकता में सर्वव्यापी है इसलिए इसने इलाज का संकट भी पैदा कर दिया है। स्वास्थ्य सेवाओं के बड़े पैमाने पर निजीकरण ने समाज में ऐसा असंतुलन पैदा किया है कि अविकसित और ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं लगभग न के बरारबर रह गई हैं।
आज भी इस बीमारी ने हमारे देश में उतने लोग नहीं मारे हैं जितने कि अकेले टीबी मार देती है या फिर मलेरिया या ऐंसेफेलाइटिस का लोग शिकार बनते हैं। विगत साढ़े तीन माह में कोविड से मरने वालों की संख्या जहां 15,000 थी वहीं मलेरिया से इसी दौरान 20,000 लोग मरे। देश में टीबी से मरने वालों की वार्षिक संख्या 79,000 है। पर इस संख्या को अंतिम नहीं माना जा सकता क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि यह संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा चार लाख 40 हजार है। (25 जून, टाइम्स ऑफ इंडिया)। इससे एक बात तो समझ आती है कि जो भी हो इस बीमारी से सामाजिक असंतुलन का भी स्पष्ट संबंध है।
यह दोहराने की अब जरूरत नहीं है कि कोरोना का वाहक इस देश का मध्य व उच्च वर्ग रहा है, जो विदेशों से इसे लाया और अब यह इस वर्ग के साथ लगे घरेलू व अन्य कामों में लगे लोगों के माध्यम से कस्बों और गांवों की ओर बढ़ चुका है। दूसरी समस्या चूंकि इसके संक्रमण की है, इसलिए मध्य व उच्चवर्ग द्वारा ही इसके लॉकडाउन जैसा जनविरोधी तरीके का सबसे ज्यादा समर्थन भी किया जाता रहा है और चूंकि वह स्वयं इसके आर्थिक पक्ष से न के बराबर प्रभावित रहा है, इसलिए वह पूरी निर्ममता के साथ इसके लागू किए जाने का समर्थक भी है। इसका फायदा सरकार को यह हुआ कि उसे इस बहाने भीमाकोरेगांव और सीएए विरोधी जैसे जनआंदोलनों को दबाने का भरपूर मौका मिल गया है। मध्य व उच्च वर्ग यह मांग इधर बढ़ती देखी जा सकती है। उसका तर्क है निम्न और श्रमिक वर्ग को हम से दूर रखा जाए। शहरों में पिछले कुछ दशकों में पनपी रिहायिशी सोसाइटियों की सुविधाओं ने लॉकडाउन को संभव बनाने में और मध्य व उच्च वर्ग को सुरक्षित करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है।
जिस तरह से दिल्ली में न्यायालयों और केंद्रीय सरकार ने दिल्ली सरकार को निजी अस्पतालों को सबसे के लिए खोलने के आदेश को रोका और रद्द किया, वह बतलाता है कि सरकार किस तरह से मध्य व उच्चवर्ग को सुरक्षा प्रदान कर रही है। आज यह किसी से छुपा नहीं है कि तथाकथित नियंत्रणों और नियमों के बावजूद निजी अस्पतालों में मध्यवर्ग तक इलाज कराने की स्थिति में नहीं है। इसके बावजूद वह नहीं चाहता कि श्रमिक वर्ग और वह समान स्तर पर माना जाए।
चीनी सीमा पर संकट
पर इस बीच चीन द्वारा लद्दाख में की गई घुसपैठ ने एक नए संकट को पैदा कर दिया है जिससे सरकार ने हर संभव ध्यान बंटाने की कोशिश की है पर वह सफल नहीं हो पाई है। यद्यपि उसकी पूरी कोशिश यह है कि वह इस आपदा को भी अवसर में बदल ले और सैनिकों तथा देशभक्ति के नाम पर हर तरह के विपक्ष को दबा कर अपने मूल हिंदू समर्थन के आधार को और मजबूत कर ले।
नरेंद्र मोदी के कार्यकाल की सबसे बड़ी परीक्षा इधर पश्चिम की सीमा पर नहीं बल्कि उत्तर की सीमा को लेकर हो रही है जहां चीन 15 जून को हुई झड़प में 20 भारतीय सैनिक खेत हुए और उस जगह पर कब्जा कर लिया जिस पर भारत का नियंत्रण था। यह बात दीगर है कि कब्जे वाली बात को नरेंद्र मोदी ने सिरे से ही न मानने या उसकी अनदेखी करने की कोशिश की। इसका उदाहरण उनका वह वक्तव्य है जो उन्होंने लद्दाख की घटना के बाद विरोधी दलों से हुई बैठक में दिया था। इस तरह की शाब्दिक जादूगरी उनकी विशेषता है जो संकट के समय अब तक उन्हें बचाती रही है। सवाल है क्या सदा ऐसा होता रहेगा?
नरेंद्र मोदी जिस तरह से चीन से सबंध बनाने में लगे हुए थे उसका प्रमाण उनकी 18 बार की गई चीन यात्रा है जो उनके मुख्यमंत्रित्व काल से ही शुरू हो गई थी। चीन का विकास या उसकी शासन व्यवस्था जो अब तक एक व्यक्ति केंद्रित हो चुकी है, उन्हें आकर्षित करता रहा है, कहा नहीं जा सकता। पर एक मामले में यह उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का भी संकेत है। सत्ता में आने के बाद उन्होंने लगातार चीन से संबध बेहतर करने की कोशिश की है। उनके दिमाग में लगातार यह बात थी कि चीन बड़ी ताकत है और उससे भारत झगड़ा मोल लेना खतरनाक साबित हो सकता है। फिर इतिहास भी प्रमाण के तौर पर सामने था ही। मोदी के बारे में यह कहा जाता है कि वह विदेश नीति को देश हित से ज्यादा निजी हितों को साधने के लिए इस्तेमाल करते हैं। पाकिस्तान, अमेरिका और चीन से पिछले छह साल के संबंध इसका प्रमाण भी हैं।
सन् 2017 के भारत,भूटान और चीन के त्रिकोण पर स्थित, डोकलाम का प्रसंग इसका उदाहरण है। चीन ने घुसपैठ की और भारतीय सैनिक उसके खिलाफ 73 दिन तक बंदूकें ताने रहे। अंतत: चीन ने बिना किसी टकराहट के अपनी सेनाएं हटा लीं। बस फिर क्या था, भारत सरकार, इसका अपनी विजय के तौर पर ढिंढोरा पीटने में लग गई। इस बीच चीन ने वह जगह फिर से घेर ली पर इस बार भारत सरकार नहीं बोली। विशेषज्ञों का कहना है कि चीन ने भारत को यानी प्रधान मंत्री को राजनीतिक श्रेय लेने दिया और चुपचाप अपना काम करता रहा।
पाकिस्तान-भारत संबंध और अक्साईचिन
थोड़ा निष्पक्ष हो कर देखा जाए तो पिछले 45 वर्षों का इतिहास बतलाता है कि भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी गलती संभवत: यह है कि उसने अपने पश्चिमी पड़ोसी के साथ सामान्य संबंध बनाने की कभी गंभीर कोशिश नहीं की। यदि ऐसा किया होता तो आज जो उत्तरी सीमा पर हो रहा है उसे काफी हद तक रोका जा सकता था। अगर भारत ने पाकिस्तान से अपने संबंध दोस्ताना नहीं तो कम से कम सामान्य रखे होते, चीन के हाथ आज न तो अक्साईचिन आता और न ही उसे दक्षिण में अरब सागर पहुंचने का मार्ग मिलता। कहने की जरूरत नहीं है कि पश्चिमी सीमा पर चीन का जो प्रभाव आज नजर आ रहा है, वह नहीं होता। तब भारत और पाकिस्तान मिल कर चीन को नियंत्रित करने में सफल हो जाते। चीन के पास ग्वादर बंदर तक की पहुंच भी नहीं हो पाती। यही नहीं तक हमारे पास लद्दाख से जुड़े शिजिंग से तिब्बत जानेवाले सामरिक महत्त्व के मार्ग पर नजर रखने का अवसर होता। आज भी कराकोरम शृंखला और विशेषकर गलवान नदी की घाटी में जो हो रहा है उसके मूल में यही दो कारण प्रमुख हैं।
लेकिन दुखद यह है कि न तो कांग्रेसी सरकारें और न ही बाद की सर्वदलीय या अटल बिहारी के नेतृत्व वाली सरकारें इस महत्त्वपूर्ण मामले को सुलझा पाईं। इंदिरा गांधी की बांग्लादेश बनवाने में जो भूमिका रही है उसे देखते हुए कांग्रेस की इस मामले में असफलता समझ में आने वाली है पर जहां तक मोदी सरकार का सवाल है उसके लिए पाकिस्तान ऐसा एटीएम कार्ड बना हुआ है जिसे वह जब चाहे भुनाने लगती है। मुश्किल यह है कि मुस्लिम विरोध मोदी और भाजपा के राजनीतिक एजेंडे का आधार है और जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने बालाकोट के हमले को तथा कश्मीर के विस्फोट को भुनाया, वह अपने आप में प्रमाण है कि मोदी सरकार के लिए पाकिस्तान से संबंध बेहतर बनाना असंभव काम है। निश्चय ही मोदी सरकार ने जिस तरह से जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्थिति को बदला उसने भी इस संकट को बढ़ाने में कम योगदान नहीं किया है। सच यह है कि जम्मू-कश्मीर को लेकर कई इलाके ऐसे हैं जिन को लेकर भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच विवाद है। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि मोदी सरकार ने यह इसलिए भी किया कि उसे लगा कि चीन इस समय कोविड, हांगकांग और ताइवान जैसे कई मामलों के कारण घिरा हुआ है। भारत का आस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान के क्वाड समूह में होना भी चीन को अखर सकता है। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि अमेरिका भारत को अपने खेमे में लाने के लिए जी-जान से लगा है।
बदले की कार्रवाही और सीमाएं
गत माह की मन की बात में मोदी ने यह तो कहा कि ”भारत मित्रता निभाना जानता है और आखों में आंखें डालकर देखना और उचित जवाब देना भी जनता है।पर वह यह कह किसके लिए रहे हैं यह बतलाने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी या उनकी हिम्मत नहीं हुई। आज स्थिति यह है कि विगत दो महीनों में लद्दाख में चीनी सेना ने गलवान नदी घाटी में 65 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया है। यह लद्दाख की वह जगह है जिससे चीन भारतीय रक्षामंत्री द्वारा उद्घाटित डारबुक-शायोक-दौलतबेग ओल्डी रोड को कभी भी रोक सकता है। यह रोड अत्यंत सामरिक महत्त्व की है। लद्दाख और शिंजियांग को जोडऩेवाला कराकोरम दर्रा इससे सिर्फ 20 किमी की दूर पर रह जाता है।
निश्चय ही मोदी जानते हैं कि भारत चीन से सीधी लड़ाई मोल नहीं ले सकता। इसके दो कारण हैं पहला उसकी सैन्य शक्ति और दूसरा उसका दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति होना।
गलवान में हुई असफलता को ढकने के लिए अब भाजपा सेना चीनी माल के बहिष्कार की बात कर रही है पर सत्य यह है कि यह बहिष्कार एक सीमा से आगे नहीं जा सकता। यद्यपि सरकार ने इधर 59 चीनी एप्पों को प्रतिबंधित कर दिया है पर यह कुल मिला कर मोदी का अपने भारतीय समर्थकों को संतुष्ट करने से ज्यादा कुछ नहीं है। अचानक की गई आर्थिक नाकेबंदी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चीन से ज्यादा घातक होगी। उसके कई उद्योग लगभग पूरी तरह चीनी अद्र्धउत्पादों पर निर्भर हैं उदाहरण के लिए दवा उद्योग में काम आने वाला अद्र्ध तैयार माल (एपीआई या एक्टिव फार्मासूटिकल इनग्रिडिएंट्स) का 68 प्रतिशत व मोबाईल उद्योग का 73 प्रतिशत चीन से आता है। यह अचानक नहीं है कि सूक्ष, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के मंत्री नितिन गडकरी ने 28 जून को वित्त और वाणिज्य मंत्री को पत्र लिख कर आग्रह किया कि वे भारतीय बंदरगाहों में आए चीनी माल को न रोकें क्योंकि इससे छोटे उद्योग बर्बाद हो जाएंगे। दूसरी ओर चीन ने भी भारतीय माल को हांगकांग आदि बंदरगाहों में अटकाना शुरू कर दिया है। ध्यान देने की बात यह है कि चीन आसानी से मानने वाला नहीं है और अंध देश भक्ति बढ़ावा देना ऐसी स्थिति में घातक साबित हो सकता है क्यों कि देशभक्ति की कट्टरता किसी नशे से कम नहीं होती है।
वैसे भी यह याद रखना जरूरी है कि भारत और चीन के बीच सीमा 4,056 किमी लंबी है। खबरें आ रही हैं कि चीन ने लद्दाख और सिक्किम में पांच जगहों के अलावा अरुणाचल प्रदेश में भी हलचल शुरू कर दी है और यह मैकमोहन लाइन के समानांतर है। यहां यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है भारत और चीन के बीच की मैकमोहन लाइन अंग्रेजों की खींची हुई है जो सैद्धांतिक स्तर पर ही है न कि जमीन पर।
विदेशी संबंधों के मामले में मोदी सरकार की असफलता एक साथ चारों ओर नजर आने लगी है। अनुभवहीनता और अतिमहत्त्वाकांक्षा ने स्थितियों को उलझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पाकिस्तान तो पिछले 70 वर्षों का मुद्दा रहा है अब नेपाल, श्रीलंका और यहां तक कि बांग्ला देश से भी भारतीय संबंध सामान्य नहीं रहे हैं। इसकी जड़ में एक सीमा तक भाजपा का कट्टर हिंदू राष्ट्रवाद है। दूसरी ओर इन सब देशों में चीन लगातार अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। ऐसा नजर आने लगा है कि भारत की घेरे बंदी लगभग होने के करीब है।